Thursday 5 August 2021

तलाश

तलाश जो है चल रही,

मैं ढूंढता हूँ दरबदर, मैं ढूंढता हूँ हमसफ़र,

कोई रहगुज़र कोई राहबर।

ये तलाश जो है चलती रहती, ढूंढता हूँ दरबदर, मैं ढूंढता हूँ रहगुज़र

कोई राहबर कोई हमसफ़र।

चाहता हूँ

ये चाहता हूँ ज़िन्दगी में कोई ऐसा शख्स हो

मुझ जैसी बातें करे, वो मेरा ही अक्स हो।

कि कह दूं जिस से सारी बातें रह गयी जो अनकही

कहते वक़्त ये ना सोचूँ कि क्या गलत, क्या सही।

कि मैं लिखता हूँ तो लिखने का हुनर उसे मालूम हो

मेरे हर लिखे अल्फ़ाज़ का असर उसे मालूम हो।

कि काश के वो हमसफर वो रहबर के जैसा हो

काश के कोई ऐसा मिले

काश के कोई ऐसा हो।

ये ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी कट रही थी काश के सहारे

ढूंढ के जा पहुंचा एक झील के किनारे।

कि बेबसी का बोझ लिए अश्क छलका आँखों से,

मैं सहम गया वहां गूंजने वाली आहों से

क्योंकि वहाँ कोई था, कोई था वहाँ

जो मेरे साथ अपनी पलकें भिगो रहा था

वो और कोई नहीं मेरा साया था जो साथ मेरे रोया था।

तो उस शाम, उस महफ़िल में जब सिर्फ़ गुमसूमियत या तन्हाई थी

तब मुझसे गुफ़्तगू करने मेरी ही परछाई थी।

वो बड़ी देर तक मुझे घूरता रहा और फिर वो बड़े लंबे दौर तक कहता रहा। और इसने कहा,

तेरे बेमंज़िले अगाज़तों की हाँ वही मंज़िल हूँ मैं

मुझको ढूंढता दरबदर, तुझमे ही शामिल हूँ मैं।

कि मेरा पूछता है जाके दुनिया वालों से

तुझमे ही तो रहता हूँ जाने कितने सालों से।

कि पहने जितने हैं मुखौटे उतार के तू फेंक दे

मैं तुझमे ही तो रहता हूँ तू आइनों में देख ले।

कि मुझको ही तेरे लिखने का हुनर मालूम है।

तेरे हर लिखे अल्फ़ाज़ का असर भी मालूम है।

तो खत्म हुआ,

तो खत्म हुआ किसी खास को ढूंढने के सिलसिला,

मैं उस शाम खुद को ही, खुद को ही जो जा मिला।

यानि कि, जिसकी आरज़ू जिसकी जुस्तुजू में था,

मुझे क्या कुछ न मिल गया जो खुद से रूबरू में था।

तो हर शाम की थी कोशिश,

ज़माने से की थी कोशिश

पर उस शाम की कोशिश कुछ खास थी,

ये जो बरसों की जद्दोजहद थी, ये और कुछ नहीं,

मुझे अपनी ही तलाश थी।

https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/talash-hindi-kavita-by-rakesh-tiwari.html

-- राकेश तिवारी