Tuesday 29 September 2020

मै लड़की हूं , मै नारी हूं...

मै लड़की हूं , मै नारी हूं,
मै लड़की हूं , मै नारी हूं,

हालातों से पग पग लड़ती,
पर मत समझो बेचारी हूं।

नज़रों से ही, एक्सरे सा स्कैन होती हूं,
आते जाते फब्तियों को भी सुनती हूं।

फिर भी सब कुछ अनदेखा अनसुना मै करती हूं।
पढ़ाई बंद होगी, ना बढ़ पाऊंगी आगे, बस इसी बात से ही डरती हूं।

मैं लड़की हूं, मैं नारी हूं।

कभी पहनावा ठीक नहीं, कभी चाल चलन खराब मेरा,
चरित्र पर मेरे उंगली उठती है,

गर पलट कर कुछ भी कहती हूं।
ऐसे सब आरोपों का मै निशाना बनती हूं।

मैं लड़की हूं, मैं नारी हूं।

निर्भया, आसिफा सरीखी हर लड़की की मै चीख - पुकार हूं।
इसीलिए शायद हर मां बाप पर होती अब मै भारी हूं।

तभी कोख़ में ही जाती मारी हूं,
पर इन सब से कब मै हारी हूं ।

मै लड़की हूं, मै नारी हूं।

घर में रहूं गर, तो सवाल, मै क्या करती हूं?
बाहर जाऊ और काम करूं ,
तो जवाब,क्या एहसान मै करती हूं।

जब तक चुप हूं, तब तक ही संस्कारी हूं।
अपने हक की बात करूं,तो कही जाती अहंकारी हूं।

मै लड़की हूं, मै नारी हूं।

पवित्र हो कर भी वैदेही सी,क्यों मै लांछन सहती हूं?
अहिल्या सी श्राप पा कर,पाषाण मै क्यों बनती हूं?

विश्वामित्र की तपस्या, क्यों मै ही भंग करती हूं?
क्या यही अंजाम मेरा,क्या इसी लिए मैं जन्मी हूं?

मै लड़की हूं , मै नारी हूं।

कविता,काव्य में मै ही कही जाती हूं,
हर ग़ज़ल, हर शायरी में मै इरशाद होती हूं?

विज्ञापन हो कोई ,तस्वीर में, मै ही क्यों छपती हूं?
इन सब का आकर्षण आखिर मै ही क्यों बनती हूं?

मै लड़की हूं, मै नारी हूं।

मै मां हूं, मै बेटी हूं, मै बहन हूं,
मित्र कहो या दोस्त, मानो तो संगी साथी हूं।

फिर भी ना जाने क्यों? सबको एक मौके सी मै दिखती हूं।

मै लड़की हूं, मै नारी हूं।

इन सब बातों से आगे बढ़कर, अब तो कभी खूब मै हंसती हूं।

पूछो तो क्यों हंसती हूं?

बस यही बचा था सुनने को, देश में बढ़ती बेकारी का मै कारण हूं।
क्योंकि, अपने पांव पर खड़े होने को नौकरी जो,करती हूं।

मै लड़की हूं , मै नारी हूं ।

हालातों से पग पग लड़ती , पर
मत समझो मै बेचारी हूं ।


https://dc.kavyasaanj.com/2020/09/mai-ladaki-hu-mai-naari-hu.html

कवयित्री - मंजू शर्मा 





Thursday 17 September 2020

जिंदगी इक सफ़र है

जिंदगी इक सफ़र है नहीं और कुछ।
मौत के डर से डर है नहीं और कुछ।।

तेरी दौलत महल तेरा धोका है सब।
क़ब्र ही असली घर है नहीं और कुछ।।

प्यार से प्यार है प्यार ही बंदगी।
प्यार से बढ़के ज़र है नहीं और कुछ।।

नफ़रतों से हुआ कुछ न हासिल कभी।
ग़म इधर जो उधर है नहीं और कुछ।।

घटना घटती यहाँ जो वो छपती कहाँ।
सिर्फ झूठी ख़बर है नहीं और कुछ।।

बोलते सच जो थे क्यों वो ख़ामोश हैं।
ख़ौफ़ का ये असर है नहीं और कुछ।।

जो भी जाहिल को फ़ाज़िल कहेगा 'निज़ाम'।
अब उसी की कदर है नहीं और कुछ।।

https://dc.kavyasaanj.com/2020/09/jindagi-ek-safar-hai-gajal.html

कवी - निज़ाम फतेहपुरी





Friday 11 September 2020

येरे येरे पावसा

येरे येरे पावसा,
तुला देतो पैसा
पैसा झाला खोटा,
पाऊस आला मोठा

ये ग ये ग सरी,
माझे मडके भरी
सर आली धाउन,
मडके गेले वाहुन!

https://dc.kavyasaanj.com/2020/09/ye-re-ye-re-pavasa-balgeet.html

कवयित्री - रचना खडीकर




Tuesday 8 September 2020

मैं आगे बढ़ती जाती हूँ

चाहे मुझे इतिहास में निचला दर्जा दो
अपने कटु, विकृत झूठ के साथ,
भले ही कीचड़ में सान दो
फिर भी, धूल की तरह, मैं उठ जाऊँगी

मेरी जिंदादिली से परेशान हो तुम?
तुमको क्यों उदासी घेरे हुए है?
मैं चलती हूँ मानो खजाना मिला हो
मेरे कमरे के भीतर

चाँद और जैसे सूरज की तरह
ज्वार की निश्चितता के साथ,
आसमान छूती उमंगों की तरह
फिर भी मैं आगे बढ़ूँगी।

मुझे टूटा हुआ देखना चाहते थे?
झुके सिर और नीची निगाहों से
अंदर की रुलाई से कमजोर पड़े
आँसुओं की तरह झुके कंधे...

मेरा गर्व से आहत हो तुम
इतने दुखी क्यों होते हो...
क्योंकि मैं हँसती हूँ मानो मिली हो सोने की खान
पीछे घर के पिछवाड़े में खुदाई में
तुम अपशब्दों के तीर चला सकते हो मुझ पर
अपनी आँखों से कर सकते हो मेरे टुकड़े
अपनी नफरत से मार सकते हो मुझे
मगर फिर भी हवा की तरह मैं आगे बढ़ जाऊँगी!!

क्या मेरी यौनिकता से विचलित हो जाते हो तुम!
हैरान हो जाते हो इससे तुम
कि मैं नाचती हूँ मानो मुझे मिले हैं हीरे
मेरी जंघाओं के संधि स्थल पर।

इतिहास की शर्म की झोपड़ियों से निकल
बढ़ती जाती हूँ मैं
दर्द में उगे अतीत से उभरकर
बढ़ती जाती हूँ मैं

ठाठें मारता उत्ताल तरंगों वाला
काला समंदर हूँ मैं
हर ज्वार-भाटे के साथ उठता गिरता हुआ...
आतंक और डर की रातें को पीछे छोड़
बढ़ती जाती हूँ मैं!!
दूधिया उज्जवल प्रभात में
उठती जाती हूँ मैं!!

अपने पूर्वजों से मिले उपहार लेते हुए
मैं गुलामों की उम्मीद और सपना हूँ...
मैं आगे बढ़ती जाती हूँ !!
मैं आगे बढ़ती जाती हूँ !!
मैं आगे बढ़ती जाती हूँ !!
https://dc.kavyasaanj.com/2020/09/Maya-Angelou-Poem.html

कवयित्री - माया एंजेलो 
( हिंदी अनुवादक: सरिता शर्मा)





Saturday 5 September 2020

शाळेतल्या पावसात

किती काळाचे आठव
भरून वाहतोय ऊर
नको वळून पहाया
खोलात उठते काहूर


संदर्भ जुने उरी जपता
अंग अंग येई शरारून
पोटोत ठेवून भूक अवघी
पक्षी सारे जाई भरारून


रिमझिम पाऊस पेरतो
सप्तरंग जणू आकाशात
गात्र गात्र िंचब आजही
शाळेतल्या पावसात


बेधुंत बेभान वादळासवे
पाऊस आज अमाप कोसळतो
शीणलेल्या बुरुजापरी मात्र
मी आतल्या आत ढासळतो


सतत सोबत करतो हा
जीर्ण शीर्ण जीवन प्रवासात
स्वत:स विसरून आलो मी
शाळेतल्या पावसात..

https://dc.kavyasaanj.com/2020/10/shaletlya-pavasat-by-kavi-pundalik.html

कवी - पुंडलिक आंबटकर