Thursday 26 August 2021

घननीळ सागराचा घननाद

घननीळ सागराचा घननाद येतो कानी
घुमती दिशा दिशात लहरीमधील गाणी…

चौफेर सूर्य ज्वाला वारा अबोल शांत
कोठे समुद्र पक्षी गगनी फिरे निवांत…

आकाश तेज भारे माडांवरी स्थिरावे
भटकी चुकार होडी लाटात संथ धावे…

वाळूत स्तब्ध झाला रेखाकृती किनारा
जवळी असून पाणी अतृप्त तो बिचारा…

जलधीबरोबरीचे आभासमान नाते
त्याची न त्यास धरती संकेत फक्त खोटे…

सांनिध्य सागराचे आकाश पांघराया
परी साथ ना कोणाची अस्तित्व सावराया…

https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/ghanneel-sagracha-ghananaad.html

कवी - विद्याधर सीताराम करंदीकर





Saturday 21 August 2021

पवित्र रक्षा-बंधन

कच्चे धागे में बंधा,
भाई-बहन का अटूट प्यार,
विश्व को हमारी सांस्कृतिक
परंपरा का अमूल्य उपहार--
रक्षा-बंधन धागों का त्यौहार !

परमेश्वर से प्रेम, उपदेशक से प्रेम,
माता-पिता से प्रेम, बच्चों से प्रेम,
देश-प्रेम, कला-प्रेम सभी सुना--
भाई-बहन के प्रेम के बखान में,
कवि क्यों रहा अनमना ?

धन्य हमारे पूर्वज,
इसके महत्व को समझा,
इस त्यौहार को चुना।
आवश्यक नहीं कि
वह सगा हो अपना,
जिसने कलाई पर बंधवाई,
वह स्वत: भाई बना।
भाई देता रक्षा का वचन,
बहन करती मंगल-कामना।

https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/rakshabandhan-hindi-poem.html

कवी -- गोपाल सिन्हा





Thursday 12 August 2021

नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ

नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ
बोलो मेरे संग
जय हिंद, जय हिंद, जय हिंद

रस्ते में चलूंगा न डर-डर के
चाहे मुझे जीना पड़े मर-मर के
मंज़िल से पहले ना लूंगा कहीं दम
आगे ही आगे बढ़ाऊंगा कदम
दाहिने-बाए, दाहिने-बाए, थम
नन्हा मुन्ना राही ...

धूप में पसीना मैं बहाऊंगा जहाँ
हरे-हरे खेत लहरायेंगे वहाँ
धरती पे फ़ाके न पायेंगे जनम
आगे ही आगे बढ़ाऊंगा कदम

नया है ज़माना मेरी नई है डगर
देश को बनाउंगा मशीनों का नगर
भारत किसी से रहेगा नहीं कम
आगे ही आगे बढ़ाऊंगा कदम

बड़ा हो के देश का सहारा बनूंगा
दुनिया की आँखों का तारा बनूंगा
रखूँगा ऊँचा तिरंगा परचम
आगे ही आगे बढ़ाऊंगा कदम

शांति की नगरी है मेरा ये वतन
सबको सिखाऊंगा मैं प्यार का चलन
दुनिया में गिरने न दूंगा कहीं बम
आगे ही आगे बढ़ाऊंगा कदम


https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/nanha-munna-rahi-hu-patriotic-song.html

गीतकार : शकिल बदायुनी








Thursday 5 August 2021

तलाश

तलाश जो है चल रही,

मैं ढूंढता हूँ दरबदर, मैं ढूंढता हूँ हमसफ़र,

कोई रहगुज़र कोई राहबर।

ये तलाश जो है चलती रहती, ढूंढता हूँ दरबदर, मैं ढूंढता हूँ रहगुज़र

कोई राहबर कोई हमसफ़र।

चाहता हूँ

ये चाहता हूँ ज़िन्दगी में कोई ऐसा शख्स हो

मुझ जैसी बातें करे, वो मेरा ही अक्स हो।

कि कह दूं जिस से सारी बातें रह गयी जो अनकही

कहते वक़्त ये ना सोचूँ कि क्या गलत, क्या सही।

कि मैं लिखता हूँ तो लिखने का हुनर उसे मालूम हो

मेरे हर लिखे अल्फ़ाज़ का असर उसे मालूम हो।

कि काश के वो हमसफर वो रहबर के जैसा हो

काश के कोई ऐसा मिले

काश के कोई ऐसा हो।

ये ज़िन्दगी, ये ज़िन्दगी कट रही थी काश के सहारे

ढूंढ के जा पहुंचा एक झील के किनारे।

कि बेबसी का बोझ लिए अश्क छलका आँखों से,

मैं सहम गया वहां गूंजने वाली आहों से

क्योंकि वहाँ कोई था, कोई था वहाँ

जो मेरे साथ अपनी पलकें भिगो रहा था

वो और कोई नहीं मेरा साया था जो साथ मेरे रोया था।

तो उस शाम, उस महफ़िल में जब सिर्फ़ गुमसूमियत या तन्हाई थी

तब मुझसे गुफ़्तगू करने मेरी ही परछाई थी।

वो बड़ी देर तक मुझे घूरता रहा और फिर वो बड़े लंबे दौर तक कहता रहा। और इसने कहा,

तेरे बेमंज़िले अगाज़तों की हाँ वही मंज़िल हूँ मैं

मुझको ढूंढता दरबदर, तुझमे ही शामिल हूँ मैं।

कि मेरा पूछता है जाके दुनिया वालों से

तुझमे ही तो रहता हूँ जाने कितने सालों से।

कि पहने जितने हैं मुखौटे उतार के तू फेंक दे

मैं तुझमे ही तो रहता हूँ तू आइनों में देख ले।

कि मुझको ही तेरे लिखने का हुनर मालूम है।

तेरे हर लिखे अल्फ़ाज़ का असर भी मालूम है।

तो खत्म हुआ,

तो खत्म हुआ किसी खास को ढूंढने के सिलसिला,

मैं उस शाम खुद को ही, खुद को ही जो जा मिला।

यानि कि, जिसकी आरज़ू जिसकी जुस्तुजू में था,

मुझे क्या कुछ न मिल गया जो खुद से रूबरू में था।

तो हर शाम की थी कोशिश,

ज़माने से की थी कोशिश

पर उस शाम की कोशिश कुछ खास थी,

ये जो बरसों की जद्दोजहद थी, ये और कुछ नहीं,

मुझे अपनी ही तलाश थी।

https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/talash-hindi-kavita-by-rakesh-tiwari.html

-- राकेश तिवारी 





Sunday 1 August 2021

बरसों पुराना दोस्त मिला

बरसों पुराना दोस्त मिला जैसे कोई ग़ैर हो

देखा! रुका! झिझक के कहा 'तुम उमैर हो?'
https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/barso-purana-dost-shayri.html

- उमैर नज़्मी 
https://dc.kavyasaanj.com/2021/08/barso-purana-dost-shayri.html